शहडोल। जब एक ईमानदार एसपी भ्रष्टाचार के दलदल में फँसे अपने ही अधीनस्थों पर कार्रवाई नहीं कर पाते, तो इसके पीछे एक जटिल तंत्र काम कर रहा होता है। यह सिर्फ एक व्यक्ति की नाकामी नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की कमजोरी को उजागर करता है।
राजनीतिक हस्तक्षेप की बेड़ियाँ
पुलिस विभाग में सबसे बड़ी बाधा राजनीतिक दबाव है। अक्सर, जुआ, सट्टा, और अवैध खनन जैसे कारोबारियों को स्थानीय नेताओं या मंत्रियों का संरक्षण मिलता है। जब एक टीआई ऐसे कारोबारियों से साँठ-गाँठ करता है, तो वह न सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपने राजनीतिक आकाओं के लिए भी पैसा कमाता है। ऐसे में, अगर एसपी उस टीआई पर कार्रवाई करता है, तो उसे सीधे तौर पर ऊपरी दबाव झेलना पड़ता है। कई बार, ट्रांसफर या निलंबन की धमकी देकर एसपी को चुप करा दिया जाता है।
साक्ष्य का अभाव और विभागीय प्रक्रिया
किसी भी पुलिस अधिकारी पर कार्रवाई करने के लिए ठोस सबूत चाहिए होते हैं। सिर्फ शिकायत के आधार पर किसी को हटाना संभव नहीं है। जुआ-सट्टा जैसे मामलों में सबूत जुटाना मुश्किल होता है, क्योंकि ये खुले में नहीं, बल्कि गुप्त रूप से चलाए जाते हैं। अगर एसपी सीधे कार्रवाई करते हैं, तो आरोपी अदालत में इसे चुनौती दे सकते हैं। इसलिए, एसपी को पहले एक लंबी विभागीय जाँच करानी होती है, जिसमें समय लगता है और कई बार सबूतों को नष्ट कर दिया जाता है।
विभागीय नेटवर्क और गुटबाज़ी
पुलिस विभाग में भी अपनी एक अलग दुनिया होती है, जिसमें गुटबाज़ी और आपसी वफ़ादारी चलती है। एक भ्रष्ट टीआई अक्सर अपने सीनियर अधिकारियों और कर्मचारियों का एक नेटवर्क बना लेता है। अगर एसपी किसी एक पर कार्रवाई करते है, तो यह पूरा नेटवर्क उसके खिलाफ हो सकता है, जिससे एसपी के लिए काम करना मुश्किल हो जाता है। यह एक चैन रिएक्शन की तरह होता है, जहाँ एक कड़ी को तोड़ने से पूरा सिस्टम हिल जाता है।
राजस्व और अन्य विभागों की मिलीभगत
अवैध खनन जैसे मामलों में सिर्फ पुलिस ही नहीं, बल्कि राजस्व विभाग, वन विभाग और खनन विभाग की भी मिलीभगत होती है। अकेले पुलिस अधिकारी पर कार्रवाई करने से समस्या हल नहीं होती, क्योंकि यह एक संगठित गिरोह की तरह काम करता है। एसपी इस बात से भी अवगत होते हैं कि अगर वे सिर्फ पुलिस पर कार्रवाई करते हैं, तो अवैध कारोबारियों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि उन्हें दूसरे विभागों से संरक्षण मिल जाएगा।
बदलाव की रणनीति बनाम त्वरित कार्रवाई
कुछ मामलों में एसपी जानबूझकर तत्काल कार्रवाई नहीं करते। इसके पीछे एक रणनीति हो सकती है, जिसमें वह पूरे नेटवर्क को समझना चाहते हैं। वे सिर्फ छोटे खिलाड़ियों को हटाने के बजाय, जड़ तक पहुँचकर पूरे सिंडिकेट को खत्म करने की योजना बना रहे होते हैं। ऐसे में, उनका मौन रहना कमजोरी नहीं, बल्कि एक बड़ी चाल का हिस्सा हो सकता है।
पुलिस कर्मियों का ट्रांसफर और आपराधिक साठगांठ का मामला
पुलिस विभाग में कर्मियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग एक रूटीन प्रक्रिया है, लेकिन यह देखा गया है कि कुछ पुलिसकर्मी लंबे समय तक एक ही जगह पर रहते हैं। यह स्थिति कुछ मामलों में पुलिसकर्मियों और अपराधियों के बीच मिलीभगत का कारण बनी हुई है।
यह सवाल उठता है कि क्या पुलिस विभाग का खुफिया तंत्र सिर्फ आम जनता पर ही नजर रखता है और अपने कर्मियों पर नहीं।
क्या पुलिस विभाग के खुफिया तंत्र को अपने कर्मियों की गतिविधियों पर नज़र रखनी चाहिए?
क्या लंबे समय से एक ही थाने में तैनात एसएसआई, प्रधान आरक्षक और आरक्षकों के रिकॉर्ड की जांच होनी चाहिए?
अगर पुलिसकर्मी ही अपराधियों से मिलकर काम कर रहे हों, तो आम जनता पुलिस से क्या उम्मीद कर सकती है?
इस तरह के मामले सामने आने पर पुलिस विभाग की साख पर सवाल उठते हैं। यह जरूरी है कि विभाग अपने आंतरिक मामलों को गंभीरता से देखे और ऐसे कर्मियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे जो अपराधियों के साथ सांठगांठ में लिप्त हैं। पुलिस विभाग को न सिर्फ जनता, बल्कि अपने कर्मियों पर भी निगरानी रखनी चाहिए ताकि व्यवस्था में पारदर्शिता और विश्वसनीयता बनी रहे।
क्या करें?
यह स्थिति जनता के लिए निराशाजनक होती है। ऐसे में, यदि आपको ऐसे मामलों की जानकारी है, तो आप गुप्त रूप से वरिष्ठ अधिकारियों को सूचित करे। इसके अलावा, लोकायुक्त या अन्य भ्रष्टाचार विरोधी एजेंसियों को भी शिकायत की जा सकती है। जब जनता इन एजेंसियों को सबूत के साथ जानकारी देती है तो जांच की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और एसपी पर भी कार्रवाई करने का दबाव बढ़ता है उम्मीद है जिले की जनता वरिष्ठ अधिकारियों पर भरोसा जताते हुए अपने साथ थाना प्रभारियों सहित अन्य कर्मियों के द्वारा किए गए अन्याय की जानकारी साझा करेंगे.. जिससे पुलिस अधिकारियों और जनता में विश्वास बढ़ेगा और अवैध कार्यों में अंकुश लगेगा।











